रात्रि वर्णन mshg

चारु चंद्र की चंचल किरणें
खेल रही हैं जल-थल में,
स्वच्छ चांदनी बिछी हुई है
अवनि और अंबर तल में।
पुलक प्रगट करती है धरती
हरित तृणों की नोकों से,
मानो झूम रहे हैं तरु भी
मंद पवन के झोंकों से॥
क्या ही स्वच्छ चांदनी है यह
है क्या ही निस्तब्ध निशा,
है स्वच्छंद-सुमंद गंध वह,
निरानंद है कौन दिशा?
बंद नहीं, अब भी चलते हैं
नियति-नटी के कार्य-कलाप,
पर कितने एकांत भाव से,
कितने शांत और चुपचाप॥
है बिखेर देती वसुंधरा
मोती, सबके सोने पर,
रवि बटोर लेता है उनको
सदा सबेरा होने पर।
और विरामदायिनी अपनी
संध्या को दे जाता है,
शून्य श्याम तनु जिससे उसका-
नया रूप छलकाता है॥
पंचवटी की छाया में है
सुंदर पर्ण कुटीर बना,
उसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर
धीर वीर निर्भीक-मना,
जाग रहा यह कौन धनुर्धर,
जबकि भुवन भर सोता है?
भोगी कुसुमायुध योगी सा
बना दृष्टिगत होता है।

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